Pages

Tuesday 10 July 2012

जरूरी है भाषा का स्त्रीकरण एवं जनतंत्रीकरण :वंदना टेटे


झारखंडी भाषा साहित्य संस्कृति अखड़ा की महासचिव वंदना टेटे ने  अपना वक्तव्य हैदराबाद विवि के अंगेजी विभाग द्वारा आयोजित तीन दिवसीय सेमिनार में रखा। ‘भाषा, साहित्य और आदिवासी औरतें’ (Tongue, Text and Tribal Women) विषय पर बोलते हुए वंदना  ने कहा कि मुझे यह कहने में कोई हिचक नहीं है कि चाहे एंथ्रोपोलोजिकल स्टडी हो, सोशियोलॉजिकल स्टडी हो या फिर साहित्यिक सृजन, सभी विषयों एवं विधाओं में आदिवासी स्त्रियों को लेकर ‘घोटुल’ दृष्टि और उत्सुकता ही प्रमुख रही है। यह लगभग स्थापित कर दिया जा चुका है कि आदिवासी स्त्रियां हर वक्त, हर किसी के साथ सहवास के लिए तत्पर रहती हैं क्योंकि उनका समाज यौन वर्जना से मुक्त समाज है। घोटुल को लेकर गढ़ी गयी यौन क्रियाओं की कल्पनाओं के अनुसार ही बाहरी समाज आदिवासियों और आदिवासी स्त्रियों के बारे में सोचना शुरू करता है। जबकि घोटुल, गितिओड़ा या धुमकुड़िया आदिवासी जन शिक्षण के केन्द्र रहे हैं और ये वचिक आदिवासी विश्वविद्यालय यौन क्रियाओं के केन्द्र नहीं हैं। 
इन पारंपरिक शिक्षण केन्द्रों में जीवन के सभी आयामों को पुरानी पीढ़ी द्वारा नई पीढ़ी को हस्तांतरित किया जाता है। लेकिन सभ्य, विकसित और लिखित समाज घोटुल की स्वनिर्मित कल्पना से बाहर आ कर उस सच्चाई से साक्षात्कार नहीं करना चाहता है जिसके कारण आज देश का पूरा आदिवासी समाज ग्लोबल लूट के पहले निशाने पर है।उन्होंने कहा कि जब आप आदिवासी समाज पर लिखते हैं तो उनकी मूल सामाजिक प्रवृतियों और जीवनमूल्यों का ध्यान रख रहे हैं या नहीं, यह सवाल अत्यंत महत्वपूर्ण हो जाता है। यह भी देखना होगा कि आप किन जीवनमूल्यों के साथ उन्हें प्रस्तुत कर रहे हैं, क्योंकि शेष दुनिया उन्हें उसी रूप में जानेगी, जिस रूप में आप उन्हें उद्घाटित रहे हैं। 
स्पष्ट है कि साहित्य में आदिवासी स्त्रियों की उपस्थिति या उनके चित्रण का सवाल सीधे-सीधे वर्गीय और लिंगगत दृष्टि से जुड़ा हुआ है। यह महत्वपूर्ण तो है ही कि उसे आदिवासी लिख रहा है या गैर-आदिवासी, पर इससे कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण सवाल यह है कि वह किस भाषा का इस्तेमाल कर रहा है। क्योंकि अगर आपकी भाषा ही स्त्री, दलित-आदिवासी विरोधी है, तो सबसे पहले आपको उस भाषा को और उसकी शब्दावलियों का स्त्रीकरण एवं जनतंत्रीकरण करना होगा। और यह काम विशुद्ध रूप से एक सचेत वर्गीय सामाजिक-राजनीतिक कार्रवाई के बिना संभव नहीं है। 

0 comments:

Post a Comment

आपकी प्रतिक्रिया प्रकाशित हो चुकी हैं, धन्यवाद !